आरक्षण से संबंधित कुछ रिट याचिकाओं की सुनवाई कर रहा है मध्य प्रदेश हाईकार्ट
सुप्रीम कोर्ट के सामने 17 जुलाई 2023 को एक ऐसी याचिका पेश की गई, जिसमें मध्य प्रदेश हाईकार्ट में आरक्षण से संबंधित कुछ रिट याचिकाओं की सुनवाई करने के लिए एक ऐसी ‘’तटस्थ बेंच’’ के गठन की मांग की गई थी, जिसमें सामान्य वर्ग (अनारक्षित वर्ग) या ओबीसी वर्ग से संबंधित किसी भी न्यायाधीश को न रखा गया हो।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हृषिकेश राय और जस्टिस पंकज मित्तल की खंडपीठ ने इस याचिका को 50 हजार रुपए का भारी जुर्माना लगाते हुए खारिज कर दिया।
क्या था मामला : वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर इस याचिका के माध्यम से मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में विचाराधीन आरक्षण से संबंधित कुछ रिट याचिकाओं से संबंधित मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी गई थी। इस समय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष आरक्षण से संबंधित कई रिट याचिकाएं विचाराधीन हैं। कुछ रिट याचिकाओं में ओबीसी आरक्षण को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने की मांग की गई है, जबकि दूसरी ओर कुछ याचिकाओं में सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों ने ओबीसी आरक्षण14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने का विरोध किया है। इन सभी रिट याचिकाओं पर एक साथ मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की मुख्य पीठ जबलपुर द्वारा सुनवाई की जा रही है। इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान ही याचिकाकर्ता ने एक आइ.ए. के माध्यम से यह मांग की थी, कि इस मामले की सुनवाई को रोककर इसे मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के समक्ष दुबारा रखा जाए और इस मामले पर सुनवाई करने के लिए एक ऐसी ‘’तटस्थ खंडपीठ’’ का गठन किया जाए, जिसका कोई भी न्यायाधीश अनारक्षित (सामान्य) वर्ग अथवा ओबीसी वर्ग से संबंधित नहीं होना चाहिए। याचिकाकर्ता का मुख्य तर्क यह था कि इन रिट याचिकाओं पर निष्पक्ष सुनवाई केवल ऐसी खंडपीठ ही कर सकती है, जिसके सभी न्यायाधीश पूर्ण निष्पक्ष हों और जिसका कोई भी न्यायाधीश सामान्य वर्ग अथवा ओबीसी वर्ग से नहीं होना चाहिए।
मध्यप्रदेश उच्चन्यायालय ने इस आवेदन को खारिज करते हुए अपने आदेश में कहा था कि न्यायिक कार्य की प्रकृति में कठिन और कभी-कभी अप्रिय कार्यों का भी निष्पादन करना पड़ता है। फिर भी न्यायिक अधिकारियों को संविधान और कानून के अनुसार बिना किसी डर पक्षपात और पूर्वाग्रह के सभी व्यक्तियों को समान रूप से न्याय देना आवश्यक है। इसके लिए उन्हें हर तरह के दबाव का विरोध करना होगा, चाहें वह दबाव कहीं से भी आए। यह सभी न्यायिक अधिकारियों का सामान्य वैधानिक कर्तव्य है। यदि वे इससे विचलित होते हैं, तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता कमजोर हो जाएगी और साथ ही संविधान भी। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में न्यायाधीशों द्वारा ली जाने वाली शपथ का भी उल्लेख किया था। न्यायालय ने उस याचिका को खारिज करते हुए अपने आदेश में यह भी कहा था कि यदि याचिकाकर्ता के इस तरह की आवेदनों को स्वीकार किया जाता है, तो कुछ वादियों द्वारा किसी बेंच विशेष से बचने के लिए इस प्रक्रिया का दुरुपयोग भी किया जा सकता है। जिससे ‘’बेंच हंटिंग’’ को बढ़ावा मिलेगा। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय से आवेदन खारिज हो जाने के बाद याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय के इस आदेश को विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हृषिकेश राय और जस्टिस पंकज मित्तल की खंडपीठ ने इस याचिका पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि हमें मध्य प्रदेश उच्चन्यायालय के आदेश में केवल एक ही कमी दिखाई पड़ती है, कि उसने याचिकाकर्ता पर भारी जुर्माना नहीं लगाया। अतः इस याचिका को 50 हजार रुपए का जुर्माना लगाते हुए खारिज किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि याचिकाकर्ता अगले 1 महीने के अंदर जुर्माने की राशि सुप्रीम कोर्ट कानूनी सेवा समिति के पास जमा कराकर उसकी रसीद न्यायालय के समक्ष पेश करे।
कानून रिव्यू का मत : हमारा मत है कि न्यायपालिका का एक न्यायाधीश, सिर्फ न्यायाधीश होता है, जो जातिगत या श्रेणीगत सभी पूर्वाग्रहों से दूर होता है। वह सिर्फ और सिर्फ संविधान के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह कर रहा होता है। वर्तमान मामले में सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख एक स्वागत योग्य कदम है। यदि इस तरह के प्रयासों को कठोरतापूर्वक न रोका गया तो भविष्य में न्यायपालिका में भी जातीय जहर पहुंचने की पूरी आशंका बनी रहेगी।