अब सीबीआई को भ्रष्टाचार की जांच के लिए केंद्र सरकार की अनुमति की जरूरत नहीं
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट-1946 (DSPE Act-1946) की धारा 6A शुरुआत से ही शून्य मानी जाएगी। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के अधीन काम करने वाली सीबीआई की स्थापना ’’दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट-1946’’ के तहत ही की गई थी। इसी एक्ट के तहत सीबीआई किसी मामले की जांच की कार्यवाही करती है।
दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट-1946 में एक संशोधन के माध्यम से धारा 6A को जोड़ा गया था, और इस धारा को 11 सितंबर 2003 से लागू किया गया था। धारा 6A के अनुसार सीबीआई केंद्र सरकार के विशेष सचिव या इससे ऊपर के किसी अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1988 के तहत लगाए गए भ्रष्टाचार के किसी आरोप की कोई भी जांच नहीं कर सकती, जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा सीबीआई को मामले की जांच के लिए पूर्वस्वीकृति प्रदान न कर दी जाए। यह संरक्षण केंद्र सरकार के जॉइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर के सभी अधिकारियों को प्राप्त था।
सरकार द्वारा किए गए इस संशोधन को न्यायालय में चुनौती दी गई थी, और वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय से इस धारा को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद भी इस मामले में एक कानूनी प्रश्न शेष रह गया था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 2014 में धारा 6A को रद्द करने के इस फैसले को पूर्वप्रभाव से लागू किया जाएगा या फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपना निर्णय सुनाए जाने की तिथि से आगे के मामलों में ही लागू होगा।
क्या था मामला : संविधान पीठ सीबीआई बनाम आर. आर. किशोर के मामले पर विचार कर रही थी। यह मामला मूल रूप से वर्ष 2004 का है, जिसमें अभियुक्त को भ्रूण के लिंग परीक्षण के बदले रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तार आरोपी ने अपने बचाव में डीएसपीई अधिनियम की धारा 6। के संरक्षण का हवाला देते हुए कहा था कि उसके ऊपर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, और उसके विरुद्ध सीबीआई की जांच भी अवैध है। सीबीआई के विशेष जज ने आरोपी के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए उसकी अर्जी खारिज कर दी थी। लेकिन हाईकोर्ट ने आरोपी की अपील स्वीकार करते हुए उसको राहत दे दी थी। हाई कोर्ट के इस निर्णय को सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला वर्ष 2007 से लंबित था। इसी बीच वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने डीएसपीई अधिनियम की धारा 6A को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके बाद इस मामले में मुख्य कानूनी मुद्दा यह रह गया था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 2014 में अधिनियम की धारा 6A को रद्द करने के फैसले को पूर्वप्रभाव से लागू किया जाएगा या फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपना निर्णय सुनाए जाने की तिथि से आगे ही लागू होगा।
जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस अभय एस. ओक, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस जे. के. माहेश्वरी की पांच सदस्य खंडपीठ ने 11 सितंबर 2023 को सुनाए गए अपने निर्णय में कहा कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कार्ट द्वारा यदि कोई कानून संविधान के भाग 3 में दिए गए मूल अधिकारों के उल्लंघन के कारण रद्द किया जाता है, तो संविधान के अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार वह कानून शुरुआत से ही शून्य और अस्तित्वविहीन माना जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह माना जाता है कि वह कानून कभी अस्तित्व में आया ही नहीं था। इस प्रकार से सुप्रीम कोर्ट ने स्पस्ट कर दिया कि धारा 6A को उसके लागू होने के दिन अर्थात 11 सितंबर 2003 से ही रद्द माना जाएगा। संविधान पीठ के वर्तमान निर्णय के बाद भ्रष्ट सरकारी अफसरों को धारा 6A के माध्यम से दिया गया कानूनी संरक्षण का कवच समाप्त हो गया है। क्योंकि इस धारा 6A के कारण ही सरकार से स्वीकृति न मिलने का हवाला देकर भ्रष्ट सरकारी अधिकारी सीबीआई की कानूनी कार्यवाही से संरक्षण पा जाते थे।
जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस अभय एस. ओक, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस जे. के. माहेश्वरी की पांच सदस्यीय संविधानपीठ ने 11 सितंबर 2023 को सुनाए गए अपने निर्णय में कहा कि वर्ष 2014 में संविधान पीठ द्वारा सुब्रहम्णमस्वामी के मामले में इस अधिनियम की धारा 6A को रद्द करने का निर्णय पूर्ण प्रभाव से लागू माना जाएगा। संविधान पीठ ने कहा की धारा 6A कानून में शामिल किए जाने की तारीख अर्थात 11 सितंबर 2003 से ही रद्द मानी जाएगी। कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि ऐसा कोई भी कानून, जो संविधान के भाग 3 अर्थात मौलिक अधिकारों के उल्लंघन करने के आधार पर असंवैधानिक घोषित किया जाता है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 13(2) के प्रावधानों के अनुसार शुरुआत से ही शून्य और अस्तित्वविहीन माना जाएगा। संविधान पीठ ने सीबीआई की याचिका पर फैसला सुनाते हुए डीएसपीई एक्ट की धारा 6A की कानूनी स्थिति पूर्णतः स्पष्ट कर दी।
इस मामले में संविधान पीठ के समक्ष एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी था कि क्या आपराधिक प्रक्रिया कानून में किए गए किसी संशोधन को पूर्वप्रभाव से लागू किया जा सकता है। संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि आपराधिक कानून के संदर्भ में यह निर्धारित है कि किसी भी आपराध के लिए दण्ड का प्रावधान करने वाले कानून को पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करना संविधान के अनुच्छेद 20(1) एक के तहत प्राप्त मूल अधिकार का उल्लंघन होगा। संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि आपराधिक कानून के दण्डात्मक प्रावधानों को पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन ”आपराधिक न्याय प्रक्रिया” (अर्थात अपराध को साबित करने की विधि प्रक्रिया, में किए गए संशोधनों को पूर्ण प्रभाव से लागू किया जा सकता है।
संविधान पीठ ने कहा कि सरकारी अधिकारियों की कुछ श्रेणियां को सुरक्षा देना केवल आपराधिक न्याय प्रक्रिया का एक हिस्सा था, और इसीलिए इसमें संशोधन को पूर्व प्रभाव से लागू किया जा सकता है। संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि इस संशोधन को पूर्वप्रभाव से लागू करने में कोई भी नया अपराध गठित नहीं होता, और न ही किसी नए दंडात्मक प्रावधान को शामिल किया गया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(1) के तहत प्राप्त मौलिक अधिकार के अनुसार किसी भी व्यक्ति को अपराध किए जाने के समय लागू कानून के अनुसार ही सजा दिया सकती है, और किसी भी आपराधिक दण्डात्मक कानून को पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता। संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि यहां पर दंडात्मक प्रावधान में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है, केवल अपराध साबित करने की प्रक्रिया के तहत प्राप्त सुरक्षा को हटा लिया गया है, जो एक प्रक्रियागत संशोधन है। अतः यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 20(1) के तहत प्राप्त मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है।
केस टाइटल : सीबीआई बनाम आर. आर. किशोर
संविधान पीठ : जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस अभय एस. ओक, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस जे. के. माहेश्वरी (पांच सदस्यीय संविधानपीठ)
क्या था धारा 6A का विवाद :
भारत सरकार के अधीन काम करने वाली सीबीआई की स्थापना “दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट-1946” के तहत की गई थी। इसी एक्ट के तहत सीबीआई किसी मामले की जांच की कार्यवाही करती है। वर्ष 2003 में केंद्र सरकार ने एक संशोधन के माध्यम से इस अधिनियम में एक नई धारा 6A जोड़ी थी। धारा 6A को 11 सितंबर 2003 से लागू किया गया था। इस धारा के अनुसार सीबीआई केंद्र सरकार के विशेष सचिव या इससे ऊपर के किसी अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम-1988 के तहत लगाए गए भ्रष्टाचार के किसी आरोप की कोई भी जांच नहीं कर सकती, जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा सीबीआई को मामले की जांच के लिए पूर्वस्वीकृति प्रदान न कर दी जाए। यह संरक्षण केंद्र सरकार के जॉइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर के सभी अधिकारियों को प्राप्त था।
इस कानूनी प्रावधान को सुब्रह्मयम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। जिसके बाद वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट अधिनियम की धारा 6A को मूल अधिकारों का उल्लंघन करने के आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद एक कानूनी प्रश्न यह बचा रह गया था कि धारा 6A के तहत वर्ष 2014 से पहले के दर्ज मामलों में यह धारा प्रभावी रहेगी अथवा नहीं। इसी कानूनी प्रश्न पर वर्तमान संविधान पीठ विचार कर रही थी।