-विमल वधावन
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जिस प्रकार हिन्दू, ईसाईयों या पारसियों के लिए पृथक पारिवारिक कानून बनाये गये हैं उसी प्रकार मुसलमानों के लिए भी विधिवत कोई कानून निर्धारित होना चाहिए जिसमें ‘बहुविवाह प्रथा’, ‘निकाह हलाला’ तथा ‘तीन तलाक’ जैसे विषयों पर संविधान की भावनाओं के अनुसार प्रावधान बनाये जायें।
1400 वर्षों से चली आ रही तीन तलाक जैसी इस्लामिक कुप्रथा को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर ही दिया। सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस मामले पर विस्तृत बहस सुनने के बाद अपना निर्णय दिया। इस संविधान पीठ में पांच न्यायाधीश थे – मुख्यन्यायाधीश श्री जे.एस. खेहर, न्यायमूर्ति श्री आर.एफ. नारीमन, न्यायमूर्ति श्री उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति श्री कुरियन जोसफ तथा न्यायमूर्ति श्री अब्दुल नजीर। विषय की गम्भीरता को देखते हुए सम्भवतः सोच-समझ कर इस संविधान पीठ का गठन किया गया था जिसमें पांचों न्यायाधीश अलग-अलग पंथों से सम्बन्धित थे। ये न्यायाधीश क्रमशः सिख, पारसी, हिन्दू, ईसाई तथा मुस्लिम पंथों से सम्बन्धित थे। संविधान पीठ के तीन न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति श्री आर.एफ. नारीमन, न्यायमूर्ति श्री उदय उमेश ललित तथा न्यायमूर्ति श्री कुरियन जोसफ ने बहुमत से तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया। जबकि दो अन्य न्यायाधीशों श्री जे.एस. खेहर तथा न्यायमूर्ति श्री अब्दुल नजीर ने अपने भिन्न मत प्रकट करते हुए कहा कि तलाक का विषय इस्लाम पंथ का मूल विषय है। अतः भारतीय संसद को इस सम्बन्ध में कानून बनाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद अब सरकार को उन मुस्लिम पुरुषों के हित में विधिवत तलाक के लिए एक सामान्य प्रक्रिया का निर्धारण करना ही होगा जो गम्भीर परिस्थितियों के कारण अपनी पत्नी से तलाक लेना चाहते हैं। इस संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश श्री जे.एस. खेहर तथा श्री अब्दुल नजीर का विचार स्वीकार करने योग्य है जिसमें उन्होंने संसद को विधिवत एक कानून पारित करने का निर्देश दिया है। मुस्लिम महिलाओं के द्वारा तलाक लेने के सम्बन्ध में मुस्लिम विवाह तलाक कानून पहले से लागू है। परन्तु पुरुषों के लिए अलग कानून नहीं बनाये गये थे। सभी मुस्लिम पुरुष तीन तलाक की प्रथा के बल पर ही तलाक की प्रक्रिया अपनाते थे।
तीन तलाक की प्रथा मुस्लिम महिलाओं के लिए हर वक्त का खतरा बनी रहती थी। यहाँ तक कि आधुनिक युग में कई मुस्लिम पुरुषों ने एस.एम.एस., वाट्सएप तथा ई-मेल जैसे माध्यमों से भी तीन बार तलाक लिखा हुआ संदेश भेजकर वैवाहिक सम्बन्धों को समाप्त करने की प्रथा प्रारम्भ कर दी थी।
कुछ मुस्लिम महिलाओं तथा उनके संगठनों ने इस प्रथा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 में प्रदत्त समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। कई याचिकाओं में यह तर्क भी दिया गया था कि इस प्रथा के चलते मुस्लिम महिलाएँ गौरवशाली ढंग से जीवन नहीं जी पाती थी। तीन तलाक के अतिरिक्त ‘बहुविवाह प्रथा’ तथा ‘निकाह-हलाला’ नामक मुस्लिम कुप्रथाओं को भी चुनौती देते हुए कई याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अभी विचाराधीन है। तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करने वाले इस निर्णय का प्रभाव अन्य कुप्रथाओं के विरुद्ध सुनवाई पर भी अवश्य पड़ेगा।
अधिकतर राजनेताओं तथा कानूनी बुद्धिजीवियों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को ऐतिहासिक बताते हुए स्वागत किया है और इसे मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण का माध्यम माना है। परन्तु केन्द्र सरकार के विधि मंत्री श्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा है कि तीन तलाक के विषय पर किसी नये कानून की आवश्यकता नहीं है। पहले से विद्यमान कानून ही इस विषय पर संज्ञान ले सकते हैं। फिर भी सरकार इस मामले पर विधिवत विचार-विमर्श करेगी।
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का सर्वत्र स्वागत सुनने को मिल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के ही एक पूर्व न्यायाधीश श्री के.टी. थाॅमस ने इसे मुस्लिम महिलाओं के लिए एक मुख्य न्यायकारी निर्णय बताया है।
वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समीमआरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य नामक मुकदमें में दिये गये निर्णय में भी यह विचार व्यक्त किया गया था कि तीन तलाक की प्रथा को कोई कानूनी मान्यता प्रदान नहीं है। अतः सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद अनुच्छेद-141 के अन्तर्गत अब यह मान्यता एक कानून की तरह ही स्थापित हो गई है कि तीन तलाक की प्रथा असंवैधानिक होने के कारण गैर-कानूनी है।
वैसे तो न्यायाधीशों ने निर्णय तक पहुँचने की प्रक्रिया में शरियत प्रावधानों का भी गम्भीर अध्ययन करने के बाद यह पाया कि तीन तलाक की प्रथा तो शरियत के अनुसार भी उचित नहीं है। परन्तु यदि यह प्रथा शरियत के निर्देशों में स्पष्ट भी मिल जाती तो भी संवैधानिक मान्यताओं की दृष्टि में इसे वैध नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि यह प्रथा समानता नामक मूल अधिकार का उल्लंघन करती है। अतः इस मूल अधिकार के दृष्टिगत एक मुस्लिम महिला का त्याग करने के लिए मुस्लिम पुरुष को कानून की प्रक्रिया के अतिरिक्त केवल अपने व्यक्तिगत कानूनों के नाम पर किसी प्रथा का सहारा लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
वास्तविकता तो यह है कि जिस प्रकार एक बच्चा परिवार में जन्म लेने के बाद कुछ अधिकारों को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार एक महिला को भी विवाह करने के उपरान्त ससुराल में वैसे ही अधिकार प्राकृतिक तरीके से प्राप्त होने चाहिए। इस प्रकार पति की सम्पत्तियों में पत्नी का अधिकार भी एक कानूनी तथा संवैधानिक मान्यता घोषित होनी चाहिए।
इस निर्णय से एक बात विशेष रूप से स्थापित हुई है कि भारत में धर्म की स्वतन्त्रता पूरी तरह से अनियंत्रित नहीं है। यह स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक नैतिकता, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा अन्य मूल अधिकारों के दृष्टिगत ही प्राप्त हो सकती है।
तीन तलाक को चुनौती देने में सबसे अग्रणी भूमिका श्रीमती जाकिया सोमैन नामक मुस्लिम महिला ने निभाई जो भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की संस्थापक हैं। श्रीमती जाकिया का कहना है कि इस कुप्रथा के चलते हजारों-हजारों मुस्लिम महिलाएँ असहाय अवस्था में जी रही थीं। इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठाने के कारण उन्हें भी कई बार मतान्ध लोगों की धमकियों का सामना करना पड़ा। उनका मानना है कि यह निर्णय देश की सभी मुस्लिम महिलाओं की जीत है। वे इसके बाद एक मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की माँग भी करती हैं जो सरकार का दायित्व है। जिस प्रकार हिन्दू, ईसाईयों या पारसियों के लिए पृथक पारिवारिक कानून बनाये गये हैं उसी प्रकार मुसलमानों के लिए भी विधिवत कोई कानून निर्धारित होना चाहिए जिसमें ‘बहुविवाह प्रथा’, ‘निकाह हलाला’ तथा ‘तीन तलाक’ जैसे विषयों पर संविधान की भावनाओं के अनुसार प्रावधान बनाये जायें। जब तक यह कार्य नहीं होता तब तक मुस्लिम महिलाओं के प्रति भेदभाव चलता ही रहेगा।
श्रीमती जाकिया ने वर्ष 2011 में सर्वप्रथम तीन तलाक के विरुद्ध मोर्चा खोला था। वर्ष 2012 में उन्होंने मुम्बई में पहली बार प्रथम राष्ट्रीय सार्वजनिक सुनवाई नामक कार्यक्रम का आयोजन किया था जिसमें सारे भारत से लगभग 500 से अधिक मुस्लिम महिलाओं ने भाग लेकर उनके इस आन्दोलन को प्रोत्साहित किया।